तुम
आँखों में तुम्हारे नाम का
काज़ल
लगा रखा है
मैंने
पांवों में तुम्हारे
नाम के पाजेब
पहन रखे है मैंने
खनकते हो तुम्ही
मेरे हाथों में बनकर कंगन
तुम ही से तो है मेरे
ये सोलह श्रृंगार और दर्पण
पर
पर तुमने तो उतार दिया है मुझे
अपने तन से
पुरानी कमीज़ की तरह
मयूर
Thursday, July 22, 2010
Thursday, June 24, 2010
Supari
सुपारी
उनका मिशन अंतिम चरण में था । बंद कमरे में सुपारी की रकम तय की जा रही थी। उस कमरे में कुल जमा तीन लोग थे जिनमे एक सुपारी लेने वाला भी था। सुपारी देने वालो में एक महिला भी थी। सुपारी देने वाले ने मिशन को आगे बढाने का संकेत किया। सुपारी लेने वाले ने एक बार फिर उस महिला की आँखों में झाँका, महिला थोड़ी घबराई हुई जरुर थी पर उसका मौन भी स्वीकृति को ही इंगित कर रहा था।
स्वीकृति मिलते ही उसने अपना कम शुरू किया। उस महिला के साथ वह पास ही बने छोटे कमरे में चला गया। थोड़ी ही देर बाद वह वापस आया। उसने योजना के सफल होने की सूचना दी। उनका मिशन पूरी तरह कामयाब रहा था । एक और बेटी दुनिया देखने से पहले ही विदा हो चुकी थी।
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